ये अल्फाज़ भी अज़ब हैं,
न जाने क्या रंग लाते हैं,
कभी ये ठहर जाते हैं,
कभी ये बिखर जाते हैं।
कभी श्रृंगार बनते हैं,
कभी तकरार बनते हैं,
कभी बनते जुदाई ये,
कभी ये प्यार बनते हैं।
कभी ये भूख की खातिर
भी खुद से रुठ जाते हैं,
कभी तकदीर के हारे,
की ये जागीर बनते हैं।
कभी कहते हैं हाल-ए-दिल,
कभी कहते वफ़ा मुश्किल,
कभी ये चांद को मामा,
कभी प्रियतम बताते हैं।
कभी आंखों से बहते हैं,
कभी होठों से गाते हैं,
कभी आकाश में जाकर
सितारे तोड़ लाते हैं।
कभी ये दर्द बनते हैं,
कभी ये दवा बनते हैं,
कभी जब प्रेम कर बैठो,
तो खुशबू-ए-वफ़ा बनते हैं।
कभी लहरों की कहते हैं,
कभी नदिया की गाते हैं,
कभी सागर किनारे पर,
ये खुद को भूल जाते हैं।
कभी झरनों से झरते हैं,
कभी पर्वत पे चढ़ते हैं,
कभी जंगल में घूमें तो
खुद को शे़र कहते हैं।
यही अल्फ़ाज ही तो हैं,
जो हरपल मुस्कारते हैं,
चलें हर साज़ के संग मिल,
हमें जीना सिखाते हैं।
ये अल्फाज़ भी अज़ब हैं,
न जाने क्या रंग लाते हैं,
कभी ये ठहर जाते हैं,
कभी ये बिखर जाते हैं।
—————————आदित्य शुक्ला
bahu hi badhiya prastuti……umda
wah ye alfaz………………..