
तुम्हें याद है न,
वो पहर,
जब हम मिले थे,
उन अनजान गलियों में,
जहां शुरू हुआ था,
जीवन का एक नया अध्याय,
मिलन के पलों का गवाह बना था,
वो छोटा सा गांव,
जो बसा है उन पहाड़ों के बीच,
जिनकी हरियाली से परिपूर्ण चोटियां,
जीने का मर्म समझाती है,
पथरीले रास्तों पर भी,
अडिग होकर बढ़ना सिखाती हैं,
कई कसमों, कई वादों के सहारे,
चल पड़ी थी हमारी गाड़ी,
किसी अनंत सफर पर,
फूलों के बागीचों के बीच,
पुष्पों के रंगों से खेली थी हमने होली,
मुझे किसी की नज़र न लगे,
तुमने लगा लिया था,
अपनी आंखों में काज़ल,
हम होते गए एक दूजे के,
मुझे अब भी याद है,
हर चुंबन हर आलिंगन के पल,
जो कभी भूलाये नहीं जा सकते,
तभी दौर आया कठिनाइयों का,
दोनों ने भरपूर साथ निभाया,
एक-दूजे का,
पर वक्त से लड़ते-लड़ते,
वो प्रेम का अल्हड़पन कहीं खो गया,
हम ज़वान हो गए,
खोने लगे भविष्य के सपनों में,
जिन्होंने बांध बना दिया,
हमारी भाव सरिता पर,
उसके प्रवाह को रोक दिया,
जो बहा करता था,
सिर्फ तुम्हारे लिए,
वो प्रवाह अब सपनों को,
संवारने और सजाने की मशीन बन गया,
उम्मीद थी कि बांध बना है,
तो गांव में उजाला भी होगा,
पर वह उम्मीद धूमिल हो गई,
वक्त के साथ,
मेरे दरवाजों में लग गया है जंग,
कई सालों से इसकी सफाई जो नहीं हुई,
अब कोई भी आता है पास,
तो डर जाता है देखकर गहराई,
मेरे जल में तूफानों के भंवर पड़ते हैं,
आज भी लोग,
मेरे जल से आचमन की चेष्टा करते हैं,
इसी के साथ जन्मा,
तुम्हारे हृदय में अपार डर का अंबार,
जबकि तुम्हें पता था,
प्रेम अडिग है, अमिट है और है अपार,
तुम चाहती हो कि तुम्हें मिले,
पहले सा प्रेम,
उसके लिए करना होगा कुछ बलिदान,
प्रेम के बहते जल को बांधों मत,
उसे बहने तो,
उससे उठने वाली जल तरंगें,
तुम्हारे हृदय के खेत को,
हर भरा कर देंगी,
जो सूख रहा है,
बचा लो इस प्रेम को,
तोड़ दो मेरे जंग लगे दरवाजों को,
कहीं ऐसा न हो ये खुद टूट जाएं,
और जल प्रलय आ जाए,
और समस्त संसार ही,
प्रेमासिक्त हो जाए,
हे प्रिये तुम्हें याद है न
वो पहर।———-कुमार आदित्य