ख्‍वाव…

मानक

क्‍या खूब होते हैं ये ख्‍वाव,

कभी इतने नाजु़क,

ज़रा सी आवाज हुई,

और हो गए ओझल ,

कभी जागती आंखों से देखे जाते हैं,

कभी उनीदी सी आंखों का सहारा,

कभी इतने विस्‍तृत,

आकाश की तरह,

छोर खोजना ही मुश्किल,

बचपन में यही ख्‍वाव,

लहलहाते हैं,

हरी-भरी फसल की तरह,

इन्‍हीं ख्‍वावों की पलकों पर,

होती है हमारे अरमानों की हकीकत,

ज़वानी इन्‍हीं छुए-अनछुए ख्‍वावों की सीढ़ी,

पर रास्‍ता पाती है,

लेकिन न पूरे हो तो टूट जाते हैं,

क्‍या खूब होते हैं ये ख्‍वाव।

—————————-कुमार आदित्‍य

2 विचार “ख्‍वाव…&rdquo पर;

टिप्पणी करे