क्या खूब होते हैं ये ख्वाव,
कभी इतने नाजु़क,
ज़रा सी आवाज हुई,
और हो गए ओझल ,
कभी जागती आंखों से देखे जाते हैं,
कभी उनीदी सी आंखों का सहारा,
कभी इतने विस्तृत,
आकाश की तरह,
छोर खोजना ही मुश्किल,
बचपन में यही ख्वाव,
लहलहाते हैं,
हरी-भरी फसल की तरह,
इन्हीं ख्वावों की पलकों पर,
होती है हमारे अरमानों की हकीकत,
ज़वानी इन्हीं छुए-अनछुए ख्वावों की सीढ़ी,
पर रास्ता पाती है,
लेकिन न पूरे हो तो टूट जाते हैं,
क्या खूब होते हैं ये ख्वाव।
—————————-कुमार आदित्य
क्या खूब होते हैं ख्याब? बहुत ही अच्छा लिखा है आदित्य जी|
कुछ पुराने ख्वाब जहन में अपनी झलक दिखा गए|
धन्यवाद सतीश जी।