तुम हां तुम ही तो हो,
जो हर रोज,
सुबह-सुबह जाते हो,
बैलों के साथ,
जमीन को चीरकर,
उसमें पैदा करते हो उर्वरता,
फसलों को बोकर,
भरते हो इस समाज को पेट,
पर तुम्हारा पेट आज भी खाली है,
तुम न जाने कितनी मौत मरे हो,
तिल-तिल जलकर सूरज की गर्मी में,
हे अन्नदाता,
यह समाज नहीं समझता तुम्हारी वेदना,
इसे श्राप मत देना।—–कुमार आदित्य
आपकी पोस्ट कल 12/7/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा – 938 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
आभार
अपनी बात
समाज न समझे अन्नदाता की वेदना
देने खातिर अन्न उगाता, रक्त पसीने से सींचे है ।
खुद की बिगड़ी हुई दशा पर, होंठ स्वयं के जब भींचे है-
कैसे देगा श्राप जगत को, अपनी कठिनाई को झेले –
खुला गगन है बिन बादल का, सूखी धरती जब नीचे है ।
रवि जी अतिसुंदर। आभार।
मार्मिक … गहरी रचना … कटु सत्य है .. आज के भारत का वीभत्स सत्य …
धन्यवाद।