अन्‍नदाता…

मानक

तुम हां तुम ही तो हो,

जो हर रोज,

सुबह-सुबह जाते हो,

बैलों के साथ,

जमीन को चीरकर,

उसमें  पैदा करते हो उर्वरता,

फसलों को बोकर,

भरते हो इस समाज को पेट,

पर तुम्‍हारा पेट आज भी खाली है,

तुम न जाने कितनी मौत मरे हो,

तिल-तिल जलकर सूरज की गर्मी में,

हे अन्‍नदाता,

यह समाज नहीं समझता तुम्‍हारी वेदना,

इसे श्राप मत देना।—–कुमार आदित्‍य

6 विचार “अन्‍नदाता…&rdquo पर;

  1. अपनी बात
    समाज न समझे अन्नदाता की वेदना

    देने खातिर अन्न उगाता, रक्त पसीने से सींचे है ।

    खुद की बिगड़ी हुई दशा पर, होंठ स्वयं के जब भींचे है-

    कैसे देगा श्राप जगत को, अपनी कठिनाई को झेले –

    खुला गगन है बिन बादल का, सूखी धरती जब नीचे है ।

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