मैं ‘गांव’ हूं,
पर वक्त की मार से,
बदल रहा हूं हर पल,
पल-पल खो रहा हूं,
अपना अस्तित्व,
मेरी तालाबों पर,
बन गए हैं महल,
खेतों की हरियाली,
बन गई है कंकरीट,
अब कोई भी,
गर्मी की शांति को,
नहीं रोपता है,
बरगद, पाकड़ और पीपल,
शायद इसीलिए,
राहगीर इस और नहीं आते,
और न ही लगता है,
कोई प्याऊ,
प्यासा गला सींचने को,
मंदिरों में घंटीं की आवाज,
कम हो चली है,
वक्त कहां है अब,
पूजन-अर्चन का,
मैं बदल रहा हूं,
गौधूलि वेला में,
गायों के गले की घंटी,
अब नहीं बजती,
और न ही उठती है,
उनकी पदचाप से धूल,
हां अब इसकी जगह ले ली है,
उद्योगों से निकलने वाले,
धूएं और सायरन ने,
नित घुट रहा है,
मेरी संस्कृति का गला,
जिसे वर्षों संवारकर रखा मैंने,
अब बच्चे नहीं करते,
बड़ों का सम्मान,
भूल गए आदर सूचक शब्द,
गांव से निकलने वाली सड़क पर,
कान्वेंट जो बन गया है,
विकास की अंधी आंधी में,
उजड़ गए सैकड़ों घर,
बिखर गए परिवार,
एक ही घर में जलते हैं,
कई चुल्हे,
कंकरीट के घरों में रहने वालों के,
दिल भी पत्थर हो गए,
मैं गांव हूं,
कहां जा रहा हूं मुझे नहीं पता,
लोग इसे ही कहते हैं विकास,
पर मैं बदल रहा हूं,
हर पल, पल-पल।
(गांव से लौटकर मन में उभरी उथल-पुथल, सच में बदल रहा है गांव का परिदृश्य, अब गांव-गांव न रहे, न रहा जीने का वा हौसला)——————आदित्य शुक्ला
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 06/04/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
Thank you yashoda ji.
गाँव के मन की व्यथा कथा ….. मर्मस्पर्शी
thank you
‘गौधूलि वेला में,
गायों के गले की घंटी,
अब नहीं बजती,
और न ही उठती है,
उनकी पदचाप से धूल,
हां अब इसकी जगह ले ली है,
उद्योगों से निकलने वाले,
धूएं और सायरन ने,
नित घुट रहा है,
मेरी संस्कृति का गला..’
–
– तभी तो देश की रीढ़ टूटी जा रही है !
thank you
“एक ही घर में जलते हैं,
कई चुल्हे,
कंकरीट के घरों में रहने वालों के,
दिल भी पत्थर हो गए”
स्वीकारने की इच्छा तो नहीं होती पर यह एक कड़वा सच है|
मैं ‘गांव’ हूं,
पर वक्त की मार से,
बदल रहा हूं हर पल,
पल-पल खो रहा हूं,
अपना अस्तित्व,अब कोई भी,
गर्मी की शांति को,
नहीं रोपता है,
बरगद, पाकड़ और पीपल,
शायद इसीलिए,
राहगीर इस और नहीं आते,गौधूलि वेला में,हां अब इसकी जगह ले ली है,उद्योगों से निकलने वाले,
धूएं और सायरन ने,अब बच्चे नहीं करते,
बड़ों का सम्मान,
भूल गए आदर सूचक शब्द,बिखर गए परिवार,
एक ही घर में जलते हैं,
कई चुल्हे,
कंकरीट के घरों में रहने वालों के,
दिल भी पत्थर हो गए,
मैं गांव हूं,
कहां जा रहा हूं मुझे नहीं पता,
लोग इसे ही कहते हैं विकास,
पर मैं बदल रहा हूं,
हर पल, पल-पल।