यादों के दिये,
पलकों तले जलाकर रखे मैने,
आज सच में तुम्हारी याद आ रही है।
हर रोज तो तुम आती थी,
ऊषा की किरणों के साथ,
आशाओं के बरखा लिए,
बरसती थी झूमकर,
नाचती थी, गाती थी,
मस्ती में खिलखिलाती थी,
दिन की दोपहर में,
आम्रपाली के बाग में,
सुस्ताती थी उसी पेड़ के नीचे,
मोरनियों के नाच देखकर,
हमारे चेहरे खिल जाते थे,
जहां हम बचपन में कांचा खेला करते थे,
सावन के झूलों का गवाह वो पेड़,
आज नहीं है,
नही है वो बाग जहां हमने सदियां गुजरीं,
न ही है वो पेड़,
जिसके पत्तों से तुमने श्रृंगार किये थे,
रात होने को है,
तुम जा रही है,
अपने नए अशियाने में,
क्या तुम कभी नहीं आओगी।
अगली बार जब में एक बाग लगाऊंगा,
तो तुम जरूर आना,
शायद हम फिर से जी सकें,
सुकून के वो पल।———–कुमार आदित्य
जरूर आयेगी वो अगली बार आम के नये बाग में !