कोई लाल लिये फिरता है,
कोई हरा घुमाता है,
कोई घूमे केसरिया ले,
मतलब का सब नाता है।
पीला रंग खुशहाली को,
कहां कौन अपनाता है,
नीला रंग आकाश सम्भाले,
वो तो सबको भाता है।
फूलों के रंग अच्छे लगते,
लाल प्रेम की गाथा है,
और बैजनी फुलवारी का,
रंग भी खूब हंसाता है।
हरियाली का रंग हरा है,
मन शीतल हो जाता है,
नदियों के नीला रंग देखो,
सबकी प्यासा बुझता है।
सूरज आता रोज रोज है,
संग केसरिया लाता है।
कोई भेद नहीं करता वो,
सबके भाग्य जगाता है।
फिर ये कैसे युद्ध छिड़ा हैं,
रंग रंग से भिड़ा पड़ा है
बिखर गया है इन्द्रधुनष क्यों,
भाई—भाई लड़ा पड़ा है।
मेरा भारत ऐसा ना था,
जिसने सबको अपनाया था,
सभी सुखी हों, सब निरोग है,
ऐसा नारा दोहराया था।
किसने इसका रूप बिगड़ा,
किसने खेल रचाया है,
दोहरेपन की घात लगाकर,
किसने हमला करवाया है।
बदल गये आदर्श हमारे,
आजाद, भगत अब कहां याद है,
न कबीर वाणी की चिंता,
न रैदास की बात याद है।
बिखर गये आजादी के स्वर,
टूकड़ों के स्वर गूंज रहे हैं,
चोर—चोर मौसेरे भाई,
उस पर रोटी सेंक रहे हैं।
क्या फिर कोई दौर आयेगा,
इन्द्रधनुष फिर बन पायेगा,
खुशियों की बरसात झरेगी,
भारत ‘भारत’ कहलायेगा।———आदित्य शुक्ला