मिठास खो गई…..

मानक

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ये जो दौर है उसके अपने कायदे
अपने कानून हैं,
हवाओं में बह रही हर बात,
शब्दश: सही होगी,
ये मुमकिन भी है, और नामुमकिन भी,
ये वक्त गहरी पड़ताल का है,
यहां बहुत सी दुकानें ऐसी हैं,
जिनकी उचाइयां तो बहुत हैं,
पर पकवान फीके ही मिलते हैं,
आजकल फीका जो पसंद करने लगे हैं,
मिठास का मज़ा अलग ही था,
पर कहीं खो गई मालूम पड़ती है।

इन्द्रधनुष के सात रंग…..

मानक

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सात रंग थे इन्द्रधनुष के,
हमने उनको बांट लिया,
साध लिये सब अपने मकसद,
हमने सबको बांट दिया।

कोई लाल लिये फिरता है,
कोई हरा घुमाता है,
कोई घूमे केसरिया ले,
मतलब का सब नाता है।

पीला रंग खुशहाली को,
कहां कौन अपनाता है,
नीला रंग आकाश सम्भाले,
वो तो सबको भाता है।

फूलों के रंग अच्छे लगते,
लाल प्रेम की गाथा है,
और बैजनी फुलवारी का,
रंग भी खूब हंसाता है।

हरियाली का रंग हरा है,
मन शीतल हो जाता है,
नदियों के नीला रंग देखो,
सबकी प्यासा बुझता है।

सूरज आता रोज रोज है,
संग केसरिया लाता है।
कोई भेद नहीं करता वो,
सबके भाग्य जगाता है।

फिर ये कैसे युद्ध छिड़ा हैं,
रंग रंग से भिड़ा पड़ा है
बिखर गया है इन्द्रधुनष क्यों,
भाई—भाई लड़ा पड़ा है।

मेरा भारत ऐसा ना था,
जिसने सबको अपनाया था,
सभी सुखी हों, सब निरोग है,
ऐसा नारा दोहराया था।

किसने इसका रूप बिगड़ा,
किसने खेल रचाया है,
दोहरेपन की घात लगाकर,
किसने हमला करवाया है।

बदल गये आदर्श हमारे,
आजाद, भगत अब कहां याद है,
न कबीर वाणी की चिंता,
न रैदास की बात याद है।

बिखर गये आजादी के स्वर,
टूकड़ों के स्वर गूंज रहे हैं,
चोर—चोर मौसेरे भाई,
उस पर रोटी सेंक रहे हैं।

क्या फिर कोई दौर आयेगा,
इन्द्रधनुष फिर बन पायेगा,
खुशियों की बरसात झरेगी,
भारत ‘भारत’ कहलायेगा।———आदित्य शुक्ला

 

कूडे़ का ढेर, पिंटू और स्‍कूल जाते बच्‍चे …

मानक

आज सुबह चलते-चलते पहुंच,

शहर की उस बस्‍ती के पास,

जहां सूरज आता तो पर,

उजाला नहीं करता,

यहां बच्‍चों खिलखिलाहट,

दब जाती है कूड़े के ढेर तले,

ये खेलते हैं तो कूड़े के साथ,

जीते हैं तो कूड़े के साथ,

एक दिन इसी कुड़े के साथ,

समाप्‍त हो जाती है इनकी इहलीला।

इस बस्‍ती में,

एक दृश्‍य उभरा,

जिसने अंकित किए कई सवाल,

मेरे मानस पटल पर,

सड़क के पास लगे कूड़े के ढेर मैं,

हुई कुछ हलचल,

मैने सोचा कोई जानवर होगा,

लेकिन यह सोच गलत थी,

मुंह पर कालिख लगा,

एक सात-आठ साल का बच्‍चा,

पीठ पर कूड़े का थैला लादकर निकला,

लगा कि वह जाएगा,

अपने घर की ओर,

वह देखने लगा,

एकटक स्‍कूल जाते बच्‍चों को,

उसके मासूम होठों पर,

हंसी बरस गई,

उन बच्‍चों को देखकर,

लगा कि उसके मन भी कुछ है,

वो भी जाना चाहता है स्‍कूल,

वह भी पढ़ना चाहता है,

वह भी जीना चाहता है,

खुशहाल जिंदगी,

लेकिन उसकी किस्‍मत,

या समाज की विषमता,

ने उसे कुड़े के ढेर में,

जिंदगी गुजरने को मजबूर किया,

जिन हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए,

वह फिर से कूड़े के ढेर में,

अपना पेट भरने का सामान,

तलाशने लगे।

लेकिन हम मजबूर थे,

कुछ सोचने के लिए,

न जाने कितने बच्‍चे है,

इस देश में,

जिनके हंसने-हंसाने के दिन,

कूड़े के ढेर में दफ़न हो जाते हैं,

यही सोचते हुए,

उदास मन से मैं,

अपने घर पहुंचा,

जहां मेरे बच्‍चे,

तैयार बैठे थे घर जाने को।

बस आई वो चले गए,

पर मैं सोचता रहा,

पिंटू के बारे,

अरे पिंटू कौन,

वही जो मिला था,

सुबह कूड़े के ढेर के पास।